भक्ति में शक्ति
भगवान की शास्त्र अनुकुल साधना करने का एक ही तरीका हैं। लेकिन संसार मे लोग अलग अलग तरीके से करते है जैसे:-एक तो उनके द्वारा गाए जा रहे भजन को सुनकर है। एक तरीका है यज्ञ करना। एक और तरीका है तपस्या के माध्यम से। जितना अधिक ज्ञानी व्यक्ति धार्मिक ग्रंथों में गहराई तक उतरता है। लेकिन जो साधारण व्यक्ति धार्मिक साहित्य को नहीं पढ़ और समझ सकता है या यहाँ तक कि ईश्वर के बारे में प्रवचन या ध्यान भी सुन सकता है, पूजा का एक आसान तरीका है, और वह है पूर्ण गुरू बनाकर सत साधना करना और ईश्वर की साधना करके अपनी भक्ति रूपी पैधा तैयार करना।
श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 - 4, 16, 17 में कहा गया है जो संत इस संसार रूपी उल्टे लटके हुए वृक्ष के सभी विभाग बता देगा वह पूर्ण गुरु/सच्चा सद्गुरु है।
यह तत्वज्ञान केवल संत रामपाल जी महाराज ही बता रहे हैं।
लेकिन क्या किसी मंदिर में जाना पर्याप्त है? क्या किसी मंदिर में जाने मात्र से भक्ति की उत्पत्ति होती है? भक्ति के लिए हमें भगवान के करीब ले जाना चाहिए, यह भक्ति होनी चाहिए जो भगवान से बदले में कुछ भी नहीं की अपेक्षा करती है। दामोदर दीक्षित ने कहा कि सच्चे भक्त अपनी भक्ति के लिए कोई पुरस्कार नहीं चाहते हैं।
दुर्भाग्य से, इन दिनों, लोग मंदिरों में आते हैं, केवल अगर वे निश्चित हैं कि कुछ सांसारिक इनाम या पीड़ा से राहत का इंतजार करते हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति किसी भौतिक पुरस्कार की अपेक्षा करते हुए किसी मंदिर में जाता है, तो कोई भी यह मानने को तैयार नहीं होता है कि वह एक वास्तविक भक्त है। वह भी, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है जो ईश्वर से एहसान चाहता है। वह, अफसोस, वह राज्य है जिसमें भक्ति कम हो गई है।
नयनमार और अज्वार इस धरती पर आए थे ताकि हमें पता चले कि सच्ची भक्ति क्या है। उन्होंने कई मंदिरों का दौरा किया और मंदिरों में उनके द्वारा देखे गए देवताओं के गीत गाए। इससे उस गाँव के लोग कम से कम अपने गाँव में देवता के लिए भक्ति विकसित कर रहे होंगे। नयनमारों और अज्वारों ने किसी और चीज के बारे में नहीं सोचा था। लेकिन
उन्होनें शास्त्र अनुकुल साधना को अनुचित माना।
प्रमाण
पूर्ण संत तीन प्रकार के मंत्रों को तीन बार में उपदेश करेगा जिसका वर्णन कबीर सागर ग्रंथ पृष्ठ 265 पर बोध सागर में मिलता है। गीता जी के अध्याय 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या 822 में मिलता है।
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 25 के अनुसार तत्वदर्शी संत वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है।
संत रामपाल जी महाराज ही वह पूर्ण संत हैं जो तीन प्रकार के मंत्रों का तीन बार में उपदेश करते हैं।
सदभक्ति के उदाहरण:-
(1)मीरा बाई को शरण में लेना
मीरा बाई पहले श्री कृष्ण जी की पूजा करती थी। एक दिन संत रविदास जी तथा परमात्मा कबीर जी का सत्संग सुना तो पता चला कि श्री कृष्ण जी नाशवान हैं। समर्थ अविनाशी परमात्मा अन्य है। संत रविदास जी को गुरू बनाया। फिर अंत में कबीर जी को गुरू बनाया। तब मीरा बाई जी का सत्य भक्ति बीज का बोया गया।
गरीब, मीरां बाई पद मिली, सतगुरु पीर कबीर।
देह छतां ल्यौ लीन है, पाया नहीं शरीर।।
संत गरीबदास जी को शरण में लेना
(2)दादू जी का उद्धार
सात वर्ष की आयु के दादू जी को परमात्मा कबीर जी जिंदा महात्मा के रूप में मिले व ज्ञान समझाया और सतलोक दिखाया।
इसलिए परमात्मा कबीर जी की महिमा गाते हुए दादू जी कहते हैं :-
जिन मोकूं निज नाम दिया, सोई सतगुरु हमार ।
दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सिरजनहार ।।
वे अपने पसंदीदा भगवान पर केंद्रित थे। नयनारामों के मामले में, यह लोद शिव था और अज्वारों के मामले में, यह भगवान नारायण थे। अप्पय्या दीक्षित ने कहा कि जब कोई व्यक्ति करगट्टम करता है, एक लोक नृत्य जिसमें संतुलन की एक बड़ी भावना की आवश्यकता होती है, तो वह इस बात से बेखबर होता है कि उसके आसपास क्या चल रहा है। उनका मन केवल नृत्य पर है। इसलिए भक्तों के मामले में, वे भले ही अपनी दिनचर्या के बारे में जाने, लेकिन उनका मन हमेशा भगवान पर रहता है। भगवान उनके प्यार को प्राप्त करते हैं। यदि कोई व्यक्ति सच्चा भक्त है, तो भले ही वह एक बार गलती करने वाला हो, उसे भगवान द्वारा क्षमा किया जाता है, क्योंकि भगवान जानता है कि ये केवल गलतियां हैं, न कि जानबूझकर की गई गलतियाँ। एक सच्चा भक्त हमेशा सदाचार के मार्ग पर चलने का प्रयास करेगा।
निष्कर्ष
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।
-पूर्ण संत रामपाल जी महाराज
पूर्ण गुरु समाज से जाति व धर्म का भेद मिटाता है।
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